Monday, July 31, 2017

बढ़ती आबादी से कैसे मिले आज़ादी?
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विस्कांसिन-मैडिसन विश्वविद्यालय, चीन के प्रोफेसर यी फूक्सियन ने अभी हाल में दावा किया कि चीन की आबादी भारत से कम है अर्थात् अब भारत दुनिया का सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश है। प्रोफेसर फूक्सियन के मुताबिक चीन की जनसंख्या वर्तमान में 129 करोड़ से अधिक नहीं है जबकि भारत की जनसंख्या 132 करोड़ है। फूक्सियन चीन सरकार के दावे को भी नकारते हैं। उनके अनुसार चीन सरकार का दावा कि उनके देश की जनसंख्या 138 करोड़ के आसपास है, बिल्कुल गलत है। अगर यी के दावों को नकार भी दें तो आबादी के मामले में 2025 तक भारत, चीन से आगे निकल जाएगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि 2050 तक भारत की जनसंख्या 170 करोड़ तक पहुंच जाएगी।

जब भारत आजाद हुआ उस समय देश की आबादी 35-36 करोड़ के बीच थी पर आज यह बढ़कर 130 करोड़ के आसपास पहुंच गई है। आबादी पढ़ने से खर्चा बढ़ता है। सीमित संसाधन में बढ़ती जनसंख्या का बोझ उठा पाना मुश्किल होता है। जब इसमें गैप ज्यादा हो जाता है तो समाज में तमाम तरह की विसंगतियां पैदा होती हैं। अपराध बढ़ते हैं। भुखमरी बढ़ती है। बेरोजगारी बढ़ती है। तमाम वर्तमान समस्याएं बढ़ती आबादी के साइड इफेक्ट हैं।
आबादी रोकने के जो भी सरकारी उपाय अभी तक किये गए हैं वो नाकाफी हैं। ज्यादातर परिवार नियोजन की योजनाएं जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पाती। हालांकि शहरी आबादी और पढ़ा लिखा वर्ग एक या दो बच्चों तक सीमित हो गया है पर आज भी 70 प्रतिशत ग्रामीण एवं पिछड़े इलाकों में रहने वाले लोगों में जागरूकता का अभाव है। टेलीविजन, अखबार, रेडियो के माध्यम से फैलाया जा रहा परिवार नियोजन का संदेश पिछड़े इलाकों तक नहीं पहुंच पा रहा है।   
जागरूकता के अभाव के अलावा बढ़ती स्वास्थ्य सुविधाओं की वजह से मृत्युदर में कमी आई है। जन्मदर के अनुपात में मृत्युदर में कमी भी बढ़ती जनसंख्या का एक कारण है। आज प्रति घंटे मृत्युदर 1099 व्यक्तियों की है जबकि जन्मदर 3080 बच्चों की है। अर्थात् 2000 लोग प्रति घंटे बढ़ रहे हैं।
थोड़ी राहत देने वाली बात यह है कि जनसंख्या वृद्धिदर में कमी आई है। वर्ष 1991 की गणना में आबादी में 23.87 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई थी,2001 में 21.54 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गईजबकि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार बीते एक दशक में आबादी 17.64 फीसदी बढ़ी। इस तरह जनसंख्या वृद्धि दर में निरंतर गिरावट दर्ज की गई है। बीते एक दशक में वृद्धि दर में 3.90 फीसदी की कमी दर्ज की गई है।
दुख की बात यह है कि खेती की तरफ कोई आकर्षण नहीं होने से युवा शहरों की तरफ पलायन कर रहा है। खेत की जोत कम हो रही है। नित नए शहर व सड़कें बनते जाने से कृषि योग्य भूमि में भी कमी आई है। कुल मिलाकर 70 प्रतिशत ग्रामीण आबादी के लिए कृषि अब कोई पेशा नहीं रह गई है। रोजगार के लिए शहरों की तरफ पलायन बढ़ रहा है। पुराने शहरों पर बोझ बढ़ रहा है। जिस हिसाब से आबादी बढ़ रही है उस लिहाज से रोजगार के अवसर नहीं के बराबर हैं। बढ़ती शहरी आबादी न सिर्फ शहरों पर बोझ है बल्कि बढ़ते अपराध के लिए भी जिम्मेदार है। गरीबी, भुखमरी, कुपोषण बढ़ती आबादी की वजह  से ही है।
जनसंख्या पर नियंत्रण रखते हुए समता मूलक विकास किसी भी सरकार का मूलधर्म होना चाहिए। सरकारों ने जनसंख्या रोकने की जो योजनाएं चलाईं उससे कुछ रंग जरूर आया है। लोग भी अब काफी जागरूक हो गए हैं। साक्षरता दर 74 प्रतिशत से ऊपर है। पर हर समय बढ़ती जनसंख्या का रोना, रोना हमारी दूरदर्शिता को नहीं दर्शाता है। अगर किसी देश की आबादी ज्यादा है तो सबके लिए बुनियादी संसाधनों का इंतजाम करना, सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था करना, सबको रोजगार के अवसर उपलब्ध करना, ज्यादा से ज्यादा युवा आबादी को देश के विकास में जोड़ना-यह सब किसी भी सरकार का मूलकर्म होना चाहिए था पर आजादी के बाद कई सकारात्मक कद उठाए गए पर ज्यादा से ज्यादा युवा आबादी को रचनात्मक कार्यों से जोड़ने का जो सबसे महत्वपूर्ण काम होना चाहिए था हाशिये पर ही रहा।

आज भारत देश युवा देश है। आज 130 करोड़ आबादी में से 60 प्रतिशत यानी करीब 80 करोड़ युवा हैं। युवा का मतलब कोई देश सबसे अधिक शक्तिशाली है। सबसे अधिक ऊर्जावान है। पर हमारी सरकारों ने इस ऊर्जा को सही जगह लगाने का कोई ठोस इंतजाम नहीं किया। देश की आज ज्यादातर युवा आबादी दिग्भ्रमित है, बेरोजगार है। पुराने रोजगार, पुस्तैनी पेशे धीरे-धीरे बंद हो गए, रोजगार के नए अवसर नहीं खोजे गए। योग्यता व क्षमता के अनुसार अगर कंस्ट्रक्टिव कामों में आज के युवा वर्ग को लगा दिया जाता तो देश आज डेवलपमेंट की नई ऊंचाई छू रहा होता। 


Wednesday, June 5, 2013


जीना है तो पर्यावरण को बचाना होगा
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पर्यावरण साधारत: हमारे चारों ओर पाया जाने वाला सम्पूर्ण भाग है। जिससे जीवों को शुद्ध भोजन, शुद्ध पानी और शुद्ध हवा मिलता है। मनुष्य और जन्तुओं को पृथ्वी पर जीवित रहने के लिए इन तीन मूलभूत वस्तुओं की आवश्यकता होती है। इसके बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।
विकास की विभिन्न प्रक्रियाएं जैसे औद्योगीकरण, शहरीकरण एवं वनोन्मूलन के द्वारा लगातार पर्यावरण का ह्रास हो रहा है। आज 60 प्रतिशत विश्व का प्राकृतिक पर्यावरण प्रदूषित हो चुका है। विश्व के अधिकांश भागों में प्रदूषण किसी किसी रूप में फैल चुका है। यदि पर्यावरण ह्रास की दर को कम नहीं किया गया तो भविष्य में शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और शुद्ध भोजन मिलना दूभर हो जाएगा। जिसके कारण जीव-जन्तुओं के जीवन पर संकट जाएगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने पर्यावरण की समस्या पर 1970 से ध्यान देना शुरू कर दिया। 5 जून 1972 में आज ही के दिन स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन शुरू हुआ। यह सम्मेलन 16 जून तक चला। इसी सम्मेलन में 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाए जाने का प्रस्ताव पारित हुआ। सबसे पहला पर्यावरण दिवस 5 जून 1973 को मनाया गया। 1773 के बाद से प्रत्येक वर्ष 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है। पर्यावरण दिवस मनाए जाने का मुख्य उद्देश्य लोगों को पर्यावरण एवं पर्यावरण ह्रास के प्रति जागरूक करना है। विश्व के प्रमुख राजनीतिक समूहों का ध्यान पर्यावरणीय समस्याओं की ओर आकर्षित करना है।  लोगों को पृथ्वी पर मौजूद जीवों के महत्व को समझाना है।
इस वर्ष पर्यावरण दिवस मंगोलिया (दक्षिण अफ्रीका) में मनाया जाएगा। इसकी घोषणा 22 फरवरी को नैरोबी में UNEP के जनरल सेक्रेटरी बांकी मूरी द्वारा की गई। मंगोलिया हरित अर्थव्यवस्था अपनाने वाले देशों में अग्रणी है। अर्थव्यवस्था को विकसित करने के साथ-साथ पर्यावरण को सुरक्षित रखना वहां की सरकार का मुख्य उद्देश्य है। वहां पर सौर ऊर्जा के अत्यधिक उपयोग के साथ-साथ वैज्ञानिक विधि से खनन हो रहा ताकि पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो। सौर ऊर्जा के अत्यधिक उपयोग से वायु प्रदूषण को कम किया गया है। सघन वृक्षरोपण कार्यक्रम के द्वारा मरुस्थलीकरण और मृदा अपरदन को नियंत्रित किया गया है। लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक किया जा रहा है। इन्हीं पर्यावरणीय मित्र गतिविधियों के कारण मंगोलिया को इस बार पर्यावरण दिवस मनाने के लिए चुना गया। मंगोलिया के प्रेसिडेंट साखिया एल्बेगर्डोज को इन सभी सफल उपयोगी पर्यावरणीय कार्यों के नेतृत्व के लिए यू.एन..पी. चैंपियन ऑफ अर्थ 2012 अवार्ड से नवाजा गया।
इस वर्ष पर्यावरण दिवस की थीम है-सोचो, खाओ, सुरक्षित करो, अपने भोजन व्यर्थ होने से रोको (Thinks, Eat, Save : Reduce Your Food  Print) अत: भोजन से पहले सोचो और पर्यावरण को सुरक्षित करने में मदद करो।
हमें भोजन का चुनाव इस प्रकार करना चाहिए कि उसमें प्राकृतिक कार्बनिक पदार्थ हो, रसायनों की उपस्थिति कम हो, ताजे हों और आस-पास उपलब्ध हों। दुनिया के दूसरे कोने से आने वाले भोजन ताजे नहीं सकते और उनके आने के माध्यम से प्रदूषण भी होगा। जो पर्यावरण को और मानव  स्वास्थ्य दोनों को नुकसान पहुंचाएगा। 
FAO (Food and Agriculture Organisation) का अनुमान है कि विश्व में 1 से 3 बिलियन टन भोजन प्रति वर्ष बर्बाद हो जाता है और इतनी ही मात्रा में भोजन उप-सहारा अफ्रीकी उपमहाद्वीप में प्रतिवर्ष पैदा होता है। प्रति दिन सात में से एक इंसान भूखा सोने को मजबूर है। पांच वर्ष से कम उम्र के 20,000 बच्चे प्रतिदिन भूख से मर जाते हैं।
इस पृथ्वी पर उपस्थित सभी प्राकृतिक संसाधनों पर 7 बिलियन (2050 में 9 बिलियन) लोगों का भोजन उपलब्ध कराने का दबाव है। संसाधन सीमित हैं और उन्हें कम से कम नुकसान पहुंचाए बिना हमें भोजन की उलब्धता के बारे में सोचना है। और यह तभी संभव होगा जब भोजन को व्यर्थ न किया जाए। यही मुख्य उद्देश्य इस वर्ष के पर्यावरण दिवस का है जिसे हम सभी को मिलकर सफल बनाना है।
अत: हम लोग संकल्प लें कि हमें भोजन व्यर्थ होने से रोकना है जिससे वह दूसरे जरूरतमंद को उपलब्ध हो सके। जिससे जरूरतें कम हों, धन की बचत हो एवं पर्यावरण को नुकसान कम से कम हो।